मैं चाहता हूं कि मेरे देश की बेटियां अब गुड़िया नहीं, कलम और किताब मांगें

कैसे हैं साथियों? बहुत दिनों से मैं आपके बीच एक बात रखना चाहता था। इसके लिए मैंने कई बार इरादा किया और कई बार बदला। मैंने इरादा इसलिए बदला, क्योंकि मैं सोच रहा था कि कहीं मेरा मखौल तो नहीं उड़ाया जाएगा! आखिरकार मैंने तय किया कि यह बात कहनी चाहिए। यदि इसके एवज में मेरा मखौल उड़े तो उसके लिए मैं तैयार हूं।

आज मैं आपको मेरे जीवन की एक घटना बताना चाहता हूं। शायद 2004 या उससे कुछ पहले की बात है। मैं मेरे गांव कोलसिया के जिस राजकीय विद्यालय में पढ़ता था, वहां एक छोटी लाइब्रेरी भी थी। मैं वहां से एक किताब लेकर आया जिसमें बहुत ही खूबसूरत कहानी थी।

कहानी कुछ इस तरह थी कि किसी देश में एक बच्चा बेहद मुश्किल हालात में पढ़ाई कर रहा था। उसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। सर्दियों का मौसम उसे बहुत परेशान करता था क्योंकि जो इकलौता पुराना कोट वह पहना करता, कई जगहों से फट चुका था।

बहुत मुश्किल हालात में भी उसने इरादा नहीं बदला। अध्ययन के प्रति उसका रुझान कम नहीं हुआ। उसे तकलीफ में देख एक औरत ने उसकी मदद करनी चाहिए। एक रोज वह ​कुछ किताबें और कुछ रकम (शायद 20 डॉलर, जैसा कि मुझे याद है) लेकर उसके घर पहुंची और बतौर मदद उसे सौंप दी। उस बच्चे ने किताबें तो ले लीं लेकिन रकम के लिए मना कर दिया। तब उस औरत ने बच्चे को समझाया कि इसे मदद के तौर पर लो। जब तुम्हारे पास धन आ जाए, मुझे लौटा देना।

इस घटना के कई साल बाद वो लड़का अपने देश का राष्ट्रपति बना। उसका नाम था अब्राहम लिंकन। लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए लेकिन वे उस औरत के कर्ज को नहीं भूले। वे किताबें और 20 डॉलर ब्याज सहित लेकर उसके पास गए। वह औरत अब बूढ़ी हो चुकी थी। अपने राष्ट्रपति को देखते ही वह खड़ी हो गई लेकिन लिंकन ने उसके सम्मान में झुककर अभिवादन किया।

उन्होंने उधार की रकम और किताबें लौटानी चाही तो उसने मना कर दिया। बोली, जिस प्रकार मैंने आपको तकलीफ में देख मदद का हाथ बढ़ाया, आप भी ये किताबें और रकम उन लोगों तक पहुंचा दें जिन्हें इनकी सख्त जरूरत है। कहा जाता है कि लिंकन ने उस औरत के शब्दों का पालन किया।

इस कहानी को याद कर मेरे मन में अक्सर यह सवाल उठता है कि हमारे पास 21वीं सदी में ऐसा कोई इंतजाम क्यों नहीं है, ऐसी कोई सोच क्यों नहीं है? हम दुनिया में क्यों मारे-मारे फिर रहे हैं? मैं सोचता हूं कि क्या हम लोग ऐसा कुछ कर सकते हैं!

मैंने भारत के करोड़ों लोगों की तरह गांव की ज़िंदगी जी है और बहुत गौर से वहां की तकलीफें देखी हैं। मैंने देखा है कि आमतौर पर लोग अपनी ज़िंदगीभर की कमाई और यहां तक कि कर्जा लेकर अपना पैसा कुछ खास चीजों पर बर्बाद करते हैं। आखिर वो लोग यह रकम कहां खर्च करते हैं? वो खर्च करते हैं दहेज पर, मृत्युभोज पर, और दूसरे रस्मो-रिवाजों पर जिन्हें किसी भी हिंदू शास्त्र में अच्छा नहीं बताया गया और न ही क़ुरआन और हदीस में उन्हें अच्छा कहा गया है।

मैं दोबारा उसी बात पर आता हूं कि क्या हम इन फिजूलखर्चियों को बंद कर एक ऐसा कोश बना सकते हैं कि देश के अलग-अलग गांव और शहरों में छोटी-छोटी लाइब्रेरियां शुरू की जाएं। अगर मुमकिन हो तो फालतू रस्मों से पैसा बचाकर उन बच्चों की थोड़ी मदद की जाए जो मेहनती हैं और आगे बढ़ना चाहते हैं। हां, इसमें किसी किस्म का कोई भेदभाव न किया जाए।

यह बहुत बड़ी लाइब्रेरी न हो, छोटी-छोटी हों लेकिन बहुत सारी हों। उनमें वैज्ञानिकों की जीवनी हो, और उन लोगों के बारे में बताया जाए जो दुनिया में अच्छा बदलाव लेकर आए। अगर हम इतनी-सी कोशिश करने में कामयाब हो गए तो मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि भारत की वो खूबसूरत तस्वीर उभरकर सामने आएगी जिसके बारे में हमने सोचा भी नहीं होगा।

मैंने एक बार लिखा भी था कि जो कौमें सिर्फ वीकेंड तक के प्लान बनाती हैं, उनका कोई भविष्य नहीं होता। वो सिर्फ चाट-पकौड़ा तक रह जाती हैं। लेकिन समझदार कौमें उससे आगे सोचती हैं। वे 100 साल की बेहतरी का प्लान बनाती हैं। हमें भी यह सोचना चाहिए। अभी 2018 चल रहा है। हमें कम से कम अगले 100 साल के बारे में सोचना चाहिए कि 2118 में खुद को कहां देखना चाहते हैं।

इसके लिए हमें इन फालतू खर्चों को बंद करना होगा, थोड़ा अक्ल से, होश से काम लेना होगा। हम खुशनसीब हैं कि हमारे उपनिषद कहते हैं 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' यानी हम अंधेरे से उजाले की ओर जाएं। हमारा क़ुरआन हमें कहता हैः इकरा। अल्लाह हमें पढ़ने का हुक्म देता है ताकि हम सबसे पहले इनसान बनें।

मैं इस देश की बेटियों के नाम एक पैगाम देना चाहता हूं। उनके लिए जो इस दुनिया में हैं और उनके लिए भी जिन्हें इस दुनिया में आना है। मैं कहना चाहूंगा कि तालीम हासिल करें और अपने पैरों पर खड़ी हों। यह 21वीं सदी है जिसमें लोग बटुआ देखकर आपका मान-सम्मान तय करते हैं। आप ऐसे लड़कों से शादी से मना करने की हिम्मत रखें जो दहेज लेते हैं। यकीन मानिए, जो आज आपसे दहेज लेकर माला पहना रहा है, कल वो ही गले में फंदा भी पहना सकता है। आप अपने मां-बाप से गुड़िया मत मांगिए, बल्कि किताबें और कलम मांगिए।

मैं उम्मीद करूंगा कि हम सब मिलकर इन बातों पर गौर करेंगे और अपने प्यारे वतन को और ज्यादा बेहतर और ज्यादा खूबसूरत और ज्यादा ताकतवर बनाएंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ मैं अभी आपसे विदा लेता हूं।

— राजीव शर्मा —

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